पृथ्वी के
उद्भव की
कहानी
बड़ी विचित्र
है‚ संसार के विद्वानों ने
अलग–अलग तरह से
पृथ्वी के
जन्म की
कहानी अपने
ढंग से प्रस्तुत
की है। हमारे
देश में भी
पुराणों में
पृथ्वी के
जन्म की
कहानी को
मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। यह बात
अलग है कि संसार के विद्वान अभी तक
किसी एक निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सके
हैं फिर भी संसार के विद्वानों ने जिस निष्कर्ष को
सम्मति दी है उसका संक्षेप यही है –
फ्रांस के वैज्ञानिक बफ्तन ने 1749 में यह सिद्ध किया कि एक
बहुत बड़ा ज्योतिपिंड एक दिन सूर्य से टकरा गया‚ जिसके परिणाम
स्वरूप बड़े बड़े टुकड़े उछल कर सूर्य से उछल कर अलग हो
गए। सूर्य के यही टुकड़े ठण्डे हो कर ग्रह और
उपग्रह बने। इन्हीं टुकडों में एक टुकड़ा
पृथ्वी का भी था। इसके बाद सन् 1755
में जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान कान्ट और सन् 1796
में प्रसिद्ध गणितज्ञ लाप्लास ने भी यही
सिद्ध किया कि पृथ्वी का जन्म सूर्य में होने वाले
भीषण विस्फोट के कारण ही हुआ था।
सन् 1951 में विश्वप्रसिद्ध विद्वान जेर्राड पीकूपर ने
एक नया सिद्धान्त विश्व के सामने प्रस्तुत किया।उनके सिद्धान्त के
अनुसार सम्पूर्ण पिण्ड शून्य में फैला हुआ है। सभी
तारों में धूल और गैस भरी हुई है‚ पारस्परिक
गुरूत्वाकर्षण की शक्ति के कारण घनत्व प्राप्त
करके यह सारे पिण्ड अंतरिक्ष में चक्कर लगा रहे हैं। चक्कर
काटने के कारण उनमें इतनी
उष्मा एकत्रित हो गई है कि वे चमकते हुए तारों के रूप में दिखाई
देते हैं। उनका यह मानना है कि सूर्य भी
इसी स्थिति में था और वह भी अंतरिक्ष
में बड़ी तेजी से चक्कर लगा रहा था।
उसके चारों ओर वाष्पीय धूल का एक घेरा पड़ा हुआ
था। वह घेरा जब धीरे–धीरे घनत्व प्राप्त
करने लगा तो उसमें से अनेक समूह बाहर निकल कर उसके चारों
ओर
घूमने लगे। ये ही हमारे ग्रह‚ उपग्रह हैं‚ और
इन्हीं में से एक हमारी पृथ्वी
है। जो सूर्य से अलग होकर ठण्डी हो गई और
उसका यह स्वरूप आज दिखाई दे रहा है।
सूर्य से अलग होने पर पहले हमारी
पृथ्वी जलते हुए वाष्पपुंज के रूप में अलग–थलग
पड़ गई थी। धीरे–धीरे‚ करोड़ों
वर्ष बीत जाने पर उसका धरातल ठण्डा हुआ और
इसकी उपरी सतह पर कड़ी
सी पपड़ी जम गई। पृथ्वी का
भीतरी भाग जैसे–जैसे ठण्डा होकर
सिकुड़ता गया‚ वैसे–वैसे उसके उपरी सतह में
भी सिकुड़नें आने लगीं। उन्हीं
सिकुड़नों को हम आज पहाड़ों‚ घाटियों के रूप में देखते हैं।
पृथ्वी धीरे–धीरे
ठण्डी हो रही थी और उससे
भाप के बादल उसके वायुमण्डल को आच्छादित कर रहे थे। उन
बादलों के कारण सूर्य की किरणें पृथ्वी पर
नहीं पहुँच पा रही थीं।
प्रकृति का ऐसा खेल था कि जलती हुई
पृथ्वी के उपर जब बादल बरसते थे तो उन बादलों का
पानी पृथ्वी पर फैलने के बजाय पुनÁ भाप
बन कर वायुमण्डल पर पहुँच जाता था। क्योंकि उस समय
पृथ्वी का धरातल जल रहा था‚ अंधकारपूर्ण था
‚ इसलिये पृथ्वी पर ज्वालामुखियों और भूकंपों का
निरन्तर प्रभाव जारी था।
करोड़ों वर्षों के इस प्राकृतिक प्रभाव से यह प्रक्रिया
चलती रही और घनघोर वर्षा से
पृथ्वी इतनी ठण्डी हो गई कि
उसके धरातल पर वर्षा का जल ठहरने लगा‚ वर्षा के जल ने
एकत्र होकर समुद्रों का रूप ले लिया‚ आज वही
समुद्र पृथ्वी के तीन चौथाई भाग में फैले
हैं। अनवरत मूसलाधार वर्षा के बाद जब पृथ्वी के चारों
ओर छाए बादल छंटे तब पृथ्वी पर सूर्य
की किरणें पहुँची। सूर्य की
किरणों के पहुँचने के बाद ही जीवों के
उत्पन्न होने की प्रक्रिया शुरू हुई। ऐसी
अवस्था में पृथ्वी का स्थल भाग एकदम नंगा और
गरम ज्वालामुखियों से भरा हुआ रहा होगा‚ इसलिये जीवों
की उत्पत्ति सबसे पहले समुद्रों में हुई।
पृथ्वी पर जीवन कब अचानक शुरू हो गया
यह तो कहना मुश्किल है किन्तु विद्वानों का कहना है कि
जीवन के अंकुर विभिन्न अवयवों के बीच
रसायनिक प्रक्रियाओं के चलते रह कर प्रोटोप्लाज्म के बनने से
शुरू हुए। इसी प्रोटोप्लाज़्म के एकत्रित होकर
जीवकोष बनने के बाद जीवन आरंभ हुआ
और यहीं से एककोशीय जीव
से लेकर हाथी जैसे जीवों का विकास हुआ।
प्रारंभिक अवस्था में जीव एककोशीय
अवस्था में था‚ ये जीव दो कोशिकाओं में विभाजित हो
जाते थे। और प्रत्येक भाग स्वतंत्र जीव बन जाता
था। इन जीवकोषों के भीतर और बाहर
सूक्ष्म परमाणु अपना प्रभाव दिखाते रहते थे‚ इन्हीं
पर कालान्तर में सैलुलोस का आवरण चढ़ता रहा जिससे क्लोरोफिल
नामक हरा पदार्थ पैदा हुआ। इस हरे पदार्थ का एक विशेष गुण
यह था कि यह जिस कोष के भीतर रहता उसके लिये
सूर्य का प्रकाश ले कर कार्बन डाई ऑक्साइड को
ऑक्सीजन और पानी में बदल देता था
‚ और यह जीवन के लिये आवश्यक तत्व बन गया।
यहीं से जीवन की रफ्तार शुरू
हुई‚ ये ही हरे रंग वाले एककोशीय
जीव पौधों के रूप में विकसित हुए। जिन
जीवकोषों ने जो अपने में पर्णहरित का गुण पैदा किया वे
आगे चलकर पृथ्वी पर वनस्पति के विकास का कारण
बने और संसार में असंख्य प्रकार की वनस्पतियों का
जन्म हुआ।
जिन जीवकोषों ने अपने शरीर के चारों ओर
सेलुलोस आवरण धारण कर लिया मगर उनके भीतर
पर्णहरित का गुण उत्पन्न न हो सका और वे चलने फिरने का गुण
तो अपना सके किन्तु अपने लिये भोजन न जुटा सके‚ इसलिये
उन्होंने अपने आसपास के हरे रंग के जीवकोषों को
खाना शुरू कर दिया। ऐसे जीव हरे वाले
जीवकोषों की तरह गैसों और
पानी को अपने लिये पानी और
ऑक्सीजन में न बदल सके‚ इसलिये वे अन्य
जीवकोशों को खाकर विकसित होने लगे।
इन्हीं से सारे संसार के जीव–जंतुओं का
विकास हुआ।
इस तरह करोड़ों वर्षों में विकास की विभिन्न कड़ियों के
बाद संसार का जीवन चक्र आरंभ हुआ। मनुष्य
भी इस विकास की सबसे ज़्यादा विकसित
कड़ी है‚ जिसने अपने मस्तिष्क का अद्भुत विकास
कर जल‚ थल और आकाश तीनों को अपने
अधीन कर लिया है। ऐसा मेधावी मानव
भी पहले तो वनों ही में रहता था‚ किन्तु
उसने धीरे–धीरे वनों को साफ कर
खेती की और अपना समाज स्थापित कर
लिया। वनों के बाहर रह कर भी वनों को उसने
नहीं छोड़ा क्योंकि उसका जन्म और विकास तो
इन्हीं वनों में हुआ था। वह अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति इन्हीं वनों से
करता था। जैसे–जैसे मानव की जनस्ांख्या
बढ़ी उसकी भौतिक सुखों की
लालसा भी बढ़ी और उसने वनों में रहने
वाले प्राणियों को नष्ट करना‚ खदेड़ना आरंभ किया और उसने एक
सुरक्षित कृत्रिम अपने बनाए अप्राकृतिक वातावरण में घर बना कर
रहना शुरू किया‚ उपयोगी जानवरों को मांस और दूध के
लिये पालना शुरू किया। अपनी कुशाग्र बुद्धि से उसने
अपने आप को अन्य प्राणियों से अलग कर लिया और अपने बनाए
अप्राकृतिक वातावरण में रहते हुए तथा अपने भौतिक सुखों
की अभिवृद्धि के लिये वह उस प्रकृति‚ जिसमें उसका
विकास हुआ था‚ को ही नष्ट करने लगा।
अब ये हालात हैं कि प्रकृति के साथ मनुष्य की
छेड़छाड़ इतनी बढ़ गई है कि यदि इसे
शीघ्र ही न रोका गया तो यह वनों वन्य
प्राणियों और वनस्पतियों ही नहीं‚ स्वयं
मानव सभ्यता के लिये भी घोर संकट पैदा कर
देगी। अब समय आपके साथ है बच्चों
‚ अपनी विचारधारा बदलो प्रकृति के साथ सामंजस्य रख
कर‚ पर्यावरण के अनूकूल होकर चलो। अब ये धरती
आपके हाथों में है।
Sunday, 25 October 2015
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पृथ्वी के जन्म की अद्भुत रहस्य
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On: 07:02
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