Saturday 31 October 2015

कैसे हुई कालभैरव की उत्पत्ति पौराणिक रहस्य - Kaise Hui Kal Bhairav Ki Utpatti Pauranik Rahasya

By: Secret On: 07:30
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  • तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम
    पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के
    ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन 'भैरव' के नाम से
    किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं।
    इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में
    तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान 'भैरव' ही हैं। भगवान
    शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट
    महत्व है। तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका
    विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र
    की योगिनीह्रदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ
    कहते हैं- ' विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात् सृष्टि-
    स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः।'
    भ- से विश्व का भरण, र- से रमश, व- से वमन अर्थात
    सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव
    ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान
    शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया
    गया है।
    श्री तत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन
    अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को
    सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों
    शक्तियां उनके समाविष्ट हैं-
    'भ' अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है,
    भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के
    समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी
    विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय
    धारण किए हुए हैं।
    'र' अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र
    लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ
    हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर
    तथा अभय धारण किए हुए हैं।
    'व' अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और
    नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों
    का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका
    आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं
    अभय धारण करती हैं।
    स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में उनके
    प्राकट्य की कथा है। गर्व से उन्मत ब्रह्माजी के
    पांचवें मस्तक को अपने बाएं हाथ के नखाग्र से काट
    देने पर जब भैरव ब्रह्म हत्या के भागी हो गए, तबसे
    भगवान शिव की प्रिय पुरी 'काशी' में आकर दोष
    मुक्त हुए।
    ब्रह्मवैवत पुराण के प्रकृति खंडान्तर्गत दुर्गोपाख्यान
    में आठ पूज्य निर्दिष्ट हैं- महाभैरव, संहार भैरव,
    असितांग भैरव, रूरू भैरव, काल भैरव, क्रोध भैरव,
    ताम्रचूड भैरव, चंद्रचूड भैरव। लेकिन इसी पुराण के
    गणपति- खंड के 41वें अध्याय में अष्टभैरव के नामों में
    सात और आठ क्रमांक पर क्रमशः कपालभैरव तथा रूद्र
    भैरव का नामोल्लेख मिलता है। तंत्रसार में वर्णित
    आठ भैरव असितांग, रूरू, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली,
    भीषण संहार नाम वाले हैं।
    भैरव कलियुग के जागृत देवता हैं। शिव पुराण में भैरव
    को महादेव शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। इनकी
    आराधना में कठोर नियमों का विधान भी नहीं है।
    ऐसे परम कृपालु एवं शीघ्र फल देने वाले भैरवनाथ की
    शरण में जाने पर जीव का निश्चय ही उद्धार हो
    जाता है।

    ब्रह्मांड की उत्पत्ति का रहस्य

    By: Secret On: 07:16
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  • सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं
    अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था
    छिपा था क्या कहाँ, किसने देखा था
    उस पल तो अगम, अटल जल भी कहाँ था
    ऋग्वेद(10:129) से सृष्टि सृजन की यह
    श्रुती
    लगभग पांच हजार वर्ष पुरानी यह श्रुति
    आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी
    इसे रचित करते समय थी। सृष्टि की
    उत्पत्ति आज भी एक रहस्य है। सृष्टि के
    पहले क्या था ? इसकी रचना किसने, कब
    और क्यों की ? ऐसा क्या हुआ जिससे इस
    सृष्टि का निर्माण हुआ ?
    अनेकों अनसुलझे प्रश्न है जिनका एक
    निश्चित उत्तर किसी के पास नहीं है।
    कुछ सिद्धांत है जो कुछ प्रश्नों का उत्तर
    देते है और कुछ नये प्रश्न खड़े करते है। सभी
    प्रश्नों के उत्तर देने वाला सिद्धांत अभी
    तक सामने नहीं आया है।
    सबसे ज्यादा मान्यता प्राप्त सिद्धांत है
    महाविस्फोट सिद्धांत (The Bing Bang
    Theory)।
    महाविस्फोट सिद्धांत(The Bing Bang
    Theory)
    1929 में एडवीन हब्बल ने एक आश्चर्य
    जनक खोज की, उन्होने पाया की
    अंतरिक्ष में आप किसी भी दिशा में देखे
    आकाशगंगाये और अन्य आकाशीय पिंड
    तेजी से एक दूसरे से दूर हो रहे है। दूसरे शब्दों
    मे ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है।
    इसका मतलब यह है कि इतिहास में
    ब्रह्मांड के सभी पदार्थ आज की तुलना में
    एक दूसरे से और भी पास रहे होंगे। और एक
    समय ऐसा रहा होगा जब सभी
    आकाशीय पिंड एक ही स्थान पर रहे होंगे,
    लेकिन क्या आप इस पर विश्वास करेंगे ?
    तब से लेकर अब तक खगोल शास्त्रियों ने
    उन परिस्थितियों का विश्लेषण करने का
    प्रयास किया है कि कैसे ब्रह्मांडीय
    पदार्थ एक दूसरे से एकदम पास होने की
    स्थिती से एकदम दूर होते जा रहे है।
    इतिहास में किसी समय , शायद 10 से 15
    अरब साल पूर्व , ब्रह्मांड के सभी कण एक
    दूसरे से एकदम पास पास थे। वे इतने पास
    पास थे कि वे सभी एक ही जगह थे, एक
    ही बिंदु पर। सारा ब्रह्मांड एक बिन्दु की
    शक्ल में था। यह बिन्दु अत्यधिक घनत्व
    (infinite density) का, अत्यंत छोटा बिन्दु
    (infinitesimally small ) था। ब्रह्मांड का
    यह बिन्दु रूप अपने अत्यधिक घनत्व के
    कारण अत्यंत गर्म(infinitely hot) रहा
    होगा। इस स्थिती में भौतिकी, गणित
    या विज्ञान का कोई भी नियम काम
    नहीं करता है। यह वह स्थिती है जब मनुष्य
    किसी भी प्रकार अनुमान या विश्लेषण
    करने में असमर्थ है। काल या समय भी इस
    स्थिती में रुक जाता है, दूसरे शब्दों में
    काल और समय के कोई मायने नहीं रहते है।
    *
    इस स्थिती में किसी अज्ञात कारण से
    अचानक ब्रह्मांड का विस्तार होना शुरू
    हुआ। एक महा विस्फोट के साथ ब्रह्मांड
    का जन्म हुआ और ब्रह्मांड में पदार्थ ने एक
    दूसरे से दूर जाना शुरू कर दिया।
    महा विस्फोट के 10 सेकंड के बाद,
    अत्यधिक ऊर्जा(फोटान कणों के रूप में)
    का ही अस्तित्व था। इसी समय क्वार्क ,
    इलेक्ट्रान, एन्टी इलेक्ट्रान जैसे मूलभूत
    कणों का निर्माण हुआ। इन कणों के बारे
    हम अगले अंको मे जानेंगे।
    10 सेकंड के
    पश्चात , क्वार्क और एन्टी क्वार्क जैसे
    कणो का मूलभूत कणों के अत्याधिक
    उर्जा के मध्य टकराव के कारण ज्यादा
    मात्रा मे निर्माण हुआ। इस समय कण और
    उनके प्रति-कण दोनों का निर्माण
    हो रहा था , इसमें से कुछ एक कण और
    उनके प्रति-कण दूसरे से टकरा कर खत्म
    भी हो रहे थे। इस समय ब्रम्हांड का
    आकार एक संतरे के आकार का था।
    10 सेकंड के पश्चात, एन्टी क्वार्क
    क्वार्क से टकरा कर पूर्ण रूप से खत्म हो
    चुके थे, इस टकराव से फोटान का निर्माण
    हो रहा था। साथ में इसी
    समय प्रोटान और न्युट्रान का भी
    निर्माण हुआ।
    1 सेकंड के पश्चात, जब तापमान 10 अरब
    डिग्री सेल्सीयस था, ब्रह्मांड ने आकार
    लेना शुरू किया। उस समय ब्रह्मांड में
    ज्यादातर फोटान, इलेक्ट्रान , न्युट्रीनो
    और उनके प्रती कणो के साथ मे कुछ
    मात्रा मे प्रोटान तथा न्युट्रान थे।
    प्रोटान और न्युट्रान ने एक दूसरे के साथ
    मिल कर तत्वों(elements) का केन्द्र
    (nuclei) बनाना शुरू किया जिसे आज
    हम हाइड्रोजन, हीलीयम, लिथियम और
    ड्युटेरीयम के नाम से जानते है।
    जब महा विस्फोट के बाद तीन
    मिनट बीत चुके थे, तापमान गिरकर 1 अरब
    डिग्री सेल्सीयस हो चुका था, तत्व और
    ब्रह्मांडीय विकिरण(cosmic
    radiation) का निर्माण हो चुका था।
    यह विकिरण आज भी मौजूद है और इसे
    महसूस किया जा सकता है।
    आगे बढ़ने पर 300,000वर्ष के पश्चात,
    विस्तार करता हुआ ब्रह्मांड अभी भी
    आज के ब्रह्मांड से मेल नहीं खाता था।
    तत्व और विकिरण एक दूसरे से अलग होना
    शुरू हो चुके थे। इसी समय इलेक्ट्रान ,
    केन्द्रक के साथ में मिल कर परमाणु का
    निर्माण कर रहे थे। परमाणु मिलकर अणु
    बना रहे थे।
    इस के 1 अरब वर्ष पश्चात, ब्रह्मांड का
    एक निश्चित सा आकार बनना शुरू हुआ
    था। इसी समय क्वासर, प्रोटोगैलेक्सी
    (आकाशगंगा का प्रारंभिक रूप), तारों
    का जन्म होने लगा था। तारे हायड्रोजन
    जलाकर भारी तत्वों का निर्माण कर रहे
    थे।
    आज महा विस्फोट के लगभग 14 अरब
    साल पश्चात की स्थिती देखे ! तारों के
    साथ उनका सौर मंडल बन चुका है। परमाणु
    मिलकर कठिन अणु बना चुके है। जिसमे
    कुछ कठिन अणु जीवन( उदा: Amino Acid)
    के मूलभूत कण है। यही नहीं काफी सारे
    तारे मर कर श्याम विवर(black hole) बन
    चुके है।
    ब्रह्मांड का अभी भी विस्तार हो रहा
    है, और विस्तार की गति बढ़ती जा रही
    है। विस्तार होते हुये ब्रह्मांड की तुलना
    आप एक गुब्बारे से कर सकते है, जिस तरह
    गुब्बारे को फुलाने पर उसकी सतह पर
    स्थित बिन्दु एक दूसरे से दूर होते जाते है
    उसी तरह आकाशगंगाये एक दूसरे से दूर जा
    रही है। यह विस्तार कुछ इस तरह से हो
    रहा है जिसका कोई केन्द्र नहीं है, हर
    आकाश गंगा दूसरी आकाशगंगा से दूर जा
    रही है।
    वैकल्पिक सिद्धांत(The Alternative
    Theory)
    इस सिद्धांत के अनुसार काल और अंतरिक्ष
    एक साथ महा विस्फोट के साथ प्रारंभ
    नहीं हुये थे। इसकी मान्यता है कि काल
    अनादि है, इसका ना तो आदि है ना अंत।
    आये इस सिद्धांत को जाने।
    आकाशगंगाओ(Galaxy) और आकाशीय
    पिंडों का समुह अंतरिक्ष में एक में एक दूसरे
    से दूर जाते रहता है। महा विस्फोट के
    सिद्धांत के अनुसार आकाशीय पिण्डो
    की एक दूसरे से दूर जाने की गति महा
    विस्फोट के बाद के समय और आज के समय
    की तुलना में कम है। इसे आगे बढाते हुये यह
    सिद्धांत कहता है कि भविष्य मे
    आकाशीय पिंडों का गुरुत्वाकर्षण इस
    विस्तार की गति पर रोक लगाने मे सक्षम
    हो जायेगा। इसी समय विपरीत
    प्रक्रिया का प्रारंभ होगा अर्थात
    संकुचन का। सभी आकाशीय पिंड एक दूसरे
    के नजदीक और नजदीक आते जायेंगे और
    अंत में एक बिन्दु के रुप में संकुचित हो
    जायेंगे। इसी पल एक और महा विस्फोट
    होगा और एक नया ब्रह्मांड बनेगा,
    विस्तार की प्रक्रिया एक बार और
    प्रारंभ होगी।
    यह प्रक्रिया अनादि काल से चल रही है,
    हमारा विश्व इस विस्तार और संकुचन की
    प्रक्रिया में बने अनेकों विश्व में से एक है।
    इसके पहले भी अनेकों विश्व बने है और
    भविष्य में भी बनते रहेंगे। ब्रह्मांड के
    संकुचित होकर एक बिन्दु में बन जाने की
    प्रक्रिया को महा संकुचन(The Big
    Crunch) के नाम से जाना जाता है।
    हमारा विश्व भी एक ऐसे ही महा संकुचन
    में नष्ट हो जायेगा, जो एक महा
    विस्फोट के द्वारा नये ब्रह्मांड को जन्म
    देगा। यदि यह सिद्धांत सही है तब यह
    संकुचन की प्रक्रिया आज से 1 खरब 50
    अरब वर्ष पश्चात प्रारंभ होगी।
    यथास्थिति सिद्धांत (The Quite
    State Theory)
    महा विस्फोट का सिद्धांत सबसे ज्यादा
    मान्य सिद्धांत है लेकिन सभी
    वैज्ञानिक इससे सहमत नहीं हैं । वे मानते है
    कि ब्रह्मांड अनादि है, इसका ना तो
    आदि है ना अंत। उनके अनुसार ब्रह्मांड
    का महा विस्फोट से प्रारंभ नहीं हुआ था
    ना इसका अंत महा संकुचन से होगा।
    यह सिद्धांत मानता है कि ब्रह्मांड का
    आज जैसा है वैसा ये हमेशा से था और
    हमेशा ऐसा ही रहेगा। लेकिन सच्चाई
    इसके विपरीत है।
    इस अंक में ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में
    हमने चर्चा की, अगले अंक में हम महा
    विस्फोट और भौतिकी में मूलभूत
    सिद्धांतो की विस्तार से चर्चा करेंगे।
    ________________________________________
    ______________
    (*) इस विषय पर पूरा एक लेख लिखना है।
    (१)कण और प्रति-कण: पदार्थ के हर मूलभूत
    कण का प्रतिकण भी होता है। जैसे
    इलेक्ट्रान के लिये एन्टी इलेक्ट्रान
    (पाजीट्रान), प्रोटान-एन्टी प्रोटान ,
    न्युट्रान -एन्टीन्युट्रान इत्यादि. जब एक
    कण और उसका प्रतिकण टकराते है दोनों
    ऊर्जा(फोटान) में बदल जाते है। यदि
    आपको कभी आपका एन्टी मनुष्य मिले
    तब आप उससे हाथ मिलाने की गलती ना
    करें। आप दोनों एक धमाके के रूप में ऊर्जा
    में बदल जायेंगे।
    (२)ये भी एक रहस्य है कि ब्रह्मांड के
    निर्माण के समय कण और प्रतिकण दोनों
    बने, लेकिन कणों की मात्रा इतनी
    ज्यादा क्यों है ? क्या प्रति
    ब्रह्मांड (Anti Universe) का भी
    अस्तित्व है ?
    (३) न्युट्रीनो का मतलब न्युट्रान नहीं है,
    ये इलेक्ट्रान के समान द्रव्यमान रखते है
    लेकिन इन पर आवेश(+/-) नहीं होता है।

    Sunday 25 October 2015

    पृथ्वी के जन्म की अद्भुत रहस्य

    By: Secret On: 07:02
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  • पृथ्वी के
    उद्भव की
    कहानी
    बड़ी विचित्र
    है‚ संसार के विद्वानों ने
    अलग–अलग तरह से
    पृथ्वी के
    जन्म की
    कहानी अपने
    ढंग से प्रस्तुत
    की है। हमारे
    देश में भी
    पुराणों में
    पृथ्वी के
    जन्म की
    कहानी को
    मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। यह बात
    अलग है कि संसार के विद्वान अभी तक
    किसी एक निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सके
    हैं फिर भी संसार के विद्वानों ने जिस निष्कर्ष को
    सम्मति दी है उसका संक्षेप यही है –
    फ्रांस के वैज्ञानिक बफ्तन ने 1749 में यह सिद्ध किया कि एक
    बहुत बड़ा ज्योतिपिंड एक दिन सूर्य से टकरा गया‚ जिसके परिणाम
    स्वरूप बड़े बड़े टुकड़े उछल कर सूर्य से उछल कर अलग हो
    गए। सूर्य के यही टुकड़े ठण्डे हो कर ग्रह और
    उपग्रह बने। इन्हीं टुकडों में एक टुकड़ा
    पृथ्वी का भी था। इसके बाद सन् 1755
    में जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान कान्ट और सन् 1796
    में प्रसिद्ध गणितज्ञ लाप्लास ने भी यही
    सिद्ध किया कि पृथ्वी का जन्म सूर्य में होने वाले
    भीषण विस्फोट के कारण ही हुआ था।
    सन् 1951 में विश्वप्रसिद्ध विद्वान जेर्राड पीकूपर ने
    एक नया सिद्धान्त विश्व के सामने प्रस्तुत किया।उनके सिद्धान्त के
    अनुसार सम्पूर्ण पिण्ड शून्य में फैला हुआ है। सभी
    तारों में धूल और गैस भरी हुई है‚ पारस्परिक
    गुरूत्वाकर्षण की शक्ति के कारण घनत्व प्राप्त
    करके यह सारे पिण्ड अंतरिक्ष में चक्कर लगा रहे हैं। चक्कर
    काटने के कारण उनमें इतनी
    उष्मा एकत्रित हो गई है कि वे चमकते हुए तारों के रूप में दिखाई
    देते हैं। उनका यह मानना है कि सूर्य भी
    इसी स्थिति में था और वह भी अंतरिक्ष
    में बड़ी तेजी से चक्कर लगा रहा था।
    उसके चारों ओर वाष्पीय धूल का एक घेरा पड़ा हुआ
    था। वह घेरा जब धीरे–धीरे घनत्व प्राप्त
    करने लगा तो उसमें से अनेक समूह बाहर निकल कर उसके चारों
    ओर
    घूमने लगे। ये ही हमारे ग्रह‚ उपग्रह हैं‚ और
    इन्हीं में से एक हमारी पृथ्वी
    है। जो सूर्य से अलग होकर ठण्डी हो गई और
    उसका यह स्वरूप आज दिखाई दे रहा है।
    सूर्य से अलग होने पर पहले हमारी
    पृथ्वी जलते हुए वाष्पपुंज के रूप में अलग–थलग
    पड़ गई थी। धीरे–धीरे‚ करोड़ों
    वर्ष बीत जाने पर उसका धरातल ठण्डा हुआ और
    इसकी उपरी सतह पर कड़ी
    सी पपड़ी जम गई। पृथ्वी का
    भीतरी भाग जैसे–जैसे ठण्डा होकर
    सिकुड़ता गया‚ वैसे–वैसे उसके उपरी सतह में
    भी सिकुड़नें आने लगीं। उन्हीं
    सिकुड़नों को हम आज पहाड़ों‚ घाटियों के रूप में देखते हैं।
    पृथ्वी धीरे–धीरे
    ठण्डी हो रही थी और उससे
    भाप के बादल उसके वायुमण्डल को आच्छादित कर रहे थे। उन
    बादलों के कारण सूर्य की किरणें पृथ्वी पर
    नहीं पहुँच पा रही थीं।
    प्रकृति का ऐसा खेल था कि जलती हुई
    पृथ्वी के उपर जब बादल बरसते थे तो उन बादलों का
    पानी पृथ्वी पर फैलने के बजाय पुनÁ भाप
    बन कर वायुमण्डल पर पहुँच जाता था। क्योंकि उस समय
    पृथ्वी का धरातल जल रहा था‚ अंधकारपूर्ण था
    ‚ इसलिये पृथ्वी पर ज्वालामुखियों और भूकंपों का
    निरन्तर प्रभाव जारी था।
    करोड़ों वर्षों के इस प्राकृतिक प्रभाव से यह प्रक्रिया
    चलती रही और घनघोर वर्षा से
    पृथ्वी इतनी ठण्डी हो गई कि
    उसके धरातल पर वर्षा का जल ठहरने लगा‚ वर्षा के जल ने
    एकत्र होकर समुद्रों का रूप ले लिया‚ आज वही
    समुद्र पृथ्वी के तीन चौथाई भाग में फैले
    हैं। अनवरत मूसलाधार वर्षा के बाद जब पृथ्वी के चारों
    ओर छाए बादल छंटे तब पृथ्वी पर सूर्य
    की किरणें पहुँची। सूर्य की
    किरणों के पहुँचने के बाद ही जीवों के
    उत्पन्न होने की प्रक्रिया शुरू हुई। ऐसी
    अवस्था में पृथ्वी का स्थल भाग एकदम नंगा और
    गरम ज्वालामुखियों से भरा हुआ रहा होगा‚ इसलिये जीवों
    की उत्पत्ति सबसे पहले समुद्रों में हुई।
    पृथ्वी पर जीवन कब अचानक शुरू हो गया
    यह तो कहना मुश्किल है किन्तु विद्वानों का कहना है कि
    जीवन के अंकुर विभिन्न अवयवों के बीच
    रसायनिक प्रक्रियाओं के चलते रह कर प्रोटोप्लाज्म के बनने से
    शुरू हुए। इसी प्रोटोप्लाज़्म के एकत्रित होकर
    जीवकोष बनने के बाद जीवन आरंभ हुआ
    और यहीं से एककोशीय जीव
    से लेकर हाथी जैसे जीवों का विकास हुआ।
    प्रारंभिक अवस्था में जीव एककोशीय
    अवस्था में था‚ ये जीव दो कोशिकाओं में विभाजित हो
    जाते थे। और प्रत्येक भाग स्वतंत्र जीव बन जाता
    था। इन जीवकोषों के भीतर और बाहर
    सूक्ष्म परमाणु अपना प्रभाव दिखाते रहते थे‚ इन्हीं
    पर कालान्तर में सैलुलोस का आवरण चढ़ता रहा जिससे क्लोरोफिल
    नामक हरा पदार्थ पैदा हुआ। इस हरे पदार्थ का एक विशेष गुण
    यह था कि यह जिस कोष के भीतर रहता उसके लिये
    सूर्य का प्रकाश ले कर कार्बन डाई ऑक्साइड को
    ऑक्सीजन और पानी में बदल देता था
    ‚ और यह जीवन के लिये आवश्यक तत्व बन गया।
    यहीं से जीवन की रफ्तार शुरू
    हुई‚ ये ही हरे रंग वाले एककोशीय
    जीव पौधों के रूप में विकसित हुए। जिन
    जीवकोषों ने जो अपने में पर्णहरित का गुण पैदा किया वे
    आगे चलकर पृथ्वी पर वनस्पति के विकास का कारण
    बने और संसार में असंख्य प्रकार की वनस्पतियों का
    जन्म हुआ।
    जिन जीवकोषों ने अपने शरीर के चारों ओर
    सेलुलोस आवरण धारण कर लिया मगर उनके भीतर
    पर्णहरित का गुण उत्पन्न न हो सका और वे चलने फिरने का गुण
    तो अपना सके किन्तु अपने लिये भोजन न जुटा सके‚ इसलिये
    उन्होंने अपने आसपास के हरे रंग के जीवकोषों को
    खाना शुरू कर दिया। ऐसे जीव हरे वाले
    जीवकोषों की तरह गैसों और
    पानी को अपने लिये पानी और
    ऑक्सीजन में न बदल सके‚ इसलिये वे अन्य
    जीवकोशों को खाकर विकसित होने लगे।
    इन्हीं से सारे संसार के जीव–जंतुओं का
    विकास हुआ।
    इस तरह करोड़ों वर्षों में विकास की विभिन्न कड़ियों के
    बाद संसार का जीवन चक्र आरंभ हुआ। मनुष्य
    भी इस विकास की सबसे ज़्यादा विकसित
    कड़ी है‚ जिसने अपने मस्तिष्क का अद्भुत विकास
    कर जल‚ थल और आकाश तीनों को अपने
    अधीन कर लिया है। ऐसा मेधावी मानव
    भी पहले तो वनों ही में रहता था‚ किन्तु
    उसने धीरे–धीरे वनों को साफ कर
    खेती की और अपना समाज स्थापित कर
    लिया। वनों के बाहर रह कर भी वनों को उसने
    नहीं छोड़ा क्योंकि उसका जन्म और विकास तो
    इन्हीं वनों में हुआ था। वह अपनी
    आवश्यकताओं की पूर्ति इन्हीं वनों से
    करता था। जैसे–जैसे मानव की जनस्ांख्या
    बढ़ी उसकी भौतिक सुखों की
    लालसा भी बढ़ी और उसने वनों में रहने
    वाले प्राणियों को नष्ट करना‚ खदेड़ना आरंभ किया और उसने एक
    सुरक्षित कृत्रिम अपने बनाए अप्राकृतिक वातावरण में घर बना कर
    रहना शुरू किया‚ उपयोगी जानवरों को मांस और दूध के
    लिये पालना शुरू किया। अपनी कुशाग्र बुद्धि से उसने
    अपने आप को अन्य प्राणियों से अलग कर लिया और अपने बनाए
    अप्राकृतिक वातावरण में रहते हुए तथा अपने भौतिक सुखों
    की अभिवृद्धि के लिये वह उस प्रकृति‚ जिसमें उसका
    विकास हुआ था‚ को ही नष्ट करने लगा।
    अब ये हालात हैं कि प्रकृति के साथ मनुष्य की
    छेड़छाड़ इतनी बढ़ गई है कि यदि इसे
    शीघ्र ही न रोका गया तो यह वनों वन्य
    प्राणियों और वनस्पतियों ही नहीं‚ स्वयं
    मानव सभ्यता के लिये भी घोर संकट पैदा कर
    देगी। अब समय आपके साथ है बच्चों
    ‚ अपनी विचारधारा बदलो प्रकृति के साथ सामंजस्य रख
    कर‚ पर्यावरण के अनूकूल होकर चलो। अब ये धरती
    आपके हाथों में है।

    Saturday 24 October 2015

    चाणक्य एक रहस्य

    By: Secret On: 23:29
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  • कभी इतिहास को उस नज़र से देखें, जिस तरह
    से इतिहास वास्तव में खुद को दिखाना चाहता है तो अचरज़
    ही अधिक पैदा होता है। राज, रहस्य, रोमांच
    तथा अबूझ पहेलियां कभी डराती हैं,
    कभी सांत्वना देती हैं और
    कभी एक नई दृष्टि के साथ उत्साह भर
    जाती हैं।
    क्या कभी कोई अंदाजा भी लगा
    सकता है कि जब समाज लगभग आदिम अवस्था में था उस
    समय एक विशाल साम्राज्य आकार लेगा तथा अराजकता का
    विनाश हो जाएगा! क्या चक्रवर्ती सम्राट
    की अवधारणा, साकार हो जाएगी और
    वो भी ऐसे वक्त में जबकि पश्चिमोत्त- र
    सीमा से विभिन्न आक्रमण हो रहे हों।
    इन्ही- युद्धों के माहौल में ‘तक्षशिला’- में कुछ
    ऐसा घटित होने जा रहा था, जिसने पूरे भारतवर्ष
    की अगले कई शताब्दियों- तक नियति
    ही बदल कर रख दी।
    यही वो समय था जबकि एक विपन्न किंतु मेधा
    सम्पन्न महापुरुष ने साम्राज्यो- ं की महागाथा
    रच डाली।
    यहां आज हम बात कर रहे हैं परम मेधावी,
    ओज सम्पन्न आचार्य विष्णुगुप्- त या फिर कौटिल्य अथवा
    चाणक्य की। चाहे जिस भी नाम से
    उन्हें पुकार लीजिए किंतु उस काल में उन्हें
    इन्हीं विरुदों से जाना जाता था।
    सीमाप्- ांतों में हाहाकार मचा हुआ था। घनानंद के
    अत्याचार से जनता जितनी दुःखी
    थी, उससे कहीं ज्यादा आतंक
    अलेक्जेंड्- रिया के सिकंदर ने ने फैला रखा था। पुरु जैसे
    महानतम सम्राटों की भी चूलें हिल
    चुकी थीं तथा
    सीमावर्ती प्रदेशों पर
    यूनानी क्षत्रपों का आतंक अपनी
    बर्बरता के सीमाएं तोड़ रहा था।
    ऐसे में पंजाब के चणक क्षेत्र में एक महामना का उद्भव
    हुआ, जिसने न केवल पाटलिपुत्र- के तत्कालीन
    शासक वंश को निर्मूल ही किया वरन् भारत को
    सबसे महान मौर्य वंश की सत्ता से प्रतिष्ठित-
    भी किया।
    चाणक- य के जन्म स्थान से संबंधित कई अनुमान लगाए
    जाते हैं। इतिहासकारो- ं में उनके जन्म समय तथा स्थान को
    लेकर अधिक मतभेद हैं। कोई भी सर्वमान्य
    मत न होने पर तक्षशिला ही मानना ज्यादा
    युक्तिसंगत- प्रतीत होता है। बौद्ध मतानुसार
    तक्षशिला नगरी में ही आचार्य
    चाणक्य का जन्म हुआ था इसीलिए उनका
    प्रारम्भिक- कार्य क्षेत्र या उल्लेख इसी से
    संबंधित मिलता है।
    एक इतिहासकार सुब्रहण्यम- ने सिकंदर और कौटिल्य के
    मुलाकात की चर्चा करते हुए ये कहा है चूंकि
    ये मिलन पंजाब के क्षेत्र में हुआ इसलिए कौटिल्य को
    तक्षशिला से संबंधित मानने में कोई संदेह नहीं
    होना चाहिए।
    हां, ये अवश्य है कि उनके पिता के नाम ‘चणक’ पर आम
    सहमति है तथा इस पर भी कोई संदेह
    नहीं कि वे बेहद विपन्न परिवार से थे। किंतु
    तीव्र मेधा सम्पन्न चाणक्य को जब
    पाटलिपुत्र- के महान किंतु क्रूर शासक घनानंद का आमंत्रण
    मिलता है तो वहीं से पहली बार
    भारत का इतिहास बदल देने वाली घटना का
    आविर्भाव होता दिखाई पड़ता है।
    घटना कुछ यूं है कि एक बार पाटलिपुत्र- सम्राट घनानंद के
    यहां भोज पर युवा विष्णुगुप्- त को भी
    आमंत्रण मिला। किंतु उनके श्याम वर्ण के कारण घनानंद ने
    उनका अपमान करते हुए भोज से उन्हें उठवा दिया।
    भारी अपमान से तिलमिलाए विष्णुगुप्- त ने
    अपनी शिखा को बांधते हुए ये कठोर
    प्रतीज्ञा की कि ‘जब जक नंद
    वंश का समूल विनाश नहीं हो जाता तब तक
    अपनी शिखा नहीं खोलूंगा’।
    विशाखदत्- कृत मुद्राराक्- षस में चाणक्य
    संबंधी कथा का रोचक वर्णन किया गया है।
    संस्कृत के इस ऐतिहासिक नाटक में चाणक्य
    की नीतियों, उनकी
    अभूतपूर्व सफलताओं सहित नंद वंश के उन्मूलन का
    व्यापक उल्लेख हुआ है। कैसे किन परिस्थितिय- ों में
    चाणक्य ने तत्कालीन सर्वाधिक प्रतिष्ठित-
    साम्राज्य का विनाश कर अपनी
    कूटनीति से युवा मौर्य चन्द्रगुप्- त को सत्ता
    हासिल करवाई, इसका यथार्थ व तथ्यात्मक वर्णन
    मुद्राराक्- षस करता है।
    चाणक्य ने अपनी रचना ‘अर्थशास्त- ्र’ के
    पंद्रह अधिकरणों में राज्य नीति, सैन्य
    नीति, समाज नीति,
    अर्थनीति, गुप्तनीति आदि विषयों पर
    विस्तार से चर्चा की थी, जिसे आज
    भी लोकप्रशासन- तथा राजनीति का
    प्रमुख स्तम्भ ग्रंथ माना जाता है।