भारत का एक मात्र श्मशान घाट जहाँ मुर्दे से भी वसूला जाता है टैक्स, तीन हज़ार साल पुरानी है परंपरा
Unique tradition of Manikarnika Ghat – Tax for cremation :
काशी का मणिकर्णिका श्मशान घाट के बारे में मान्यता है कि यहां चिता पर
लेटने वाले को सीधे मोक्ष मिलता है। दुनिया का ये इकलौता श्मशान जहां चिता
की आग कभी ठंडी नहीं होती। जहां लाशों का आना और चिता का जलना कभी नहीं
थमता। यहाँ पर एक दिन में करीब 300 शवों का अंतिम संस्कार होता है।
लेकिन मणिकर्णिका घाट की इसके अलावा भी कई अन्य विशेषताएं है जो भारत के
किसी अन्य श्मशान घाट में नहीं है। ऐसी ही दो विशेषताओं के बारे में हम अब
तक आप सब को बता चुके है। पहली यह की मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच चिता भस्म से खेली जाती है होली और दूसरी चैत्र नवरात्री अष्टमी को मणिकर्णिका घाट पर,जलती चिताओं के बीच, मोक्ष की आशा में सेक्स वर्कर करती है पूरी रात डांस।
आज हम आपको इस श्मशान घाट से ही जुडी एक और अन्य परंपरा के बारे में बताएंगे जो भी यहाँ के अलावा कई और नहीं पाई जाती है।
आप शायद यकीन ना करें पर इस श्मशान घाट पर आने वाले हर मुर्दे को चिता
पर लिटाने से पहले बाकायदा टैक्स वसूला जाता है। श्मशान घाट पर लाशों से
पैसे वसूलने के पीछे की ये कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है।
मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार की कीमत चुकाने की परम्परा तकरीबन तीन हजार साल पुरानी है। मान्यता है कि श्मशान के रख रखाव का जिम्मा तभी से डोम जाति के हाथ था। चूंकि डोम जाति के पास तब रोजगार का कोई और साधन नहीं था लिहाजा दाह संस्कर के मौके पर उन्हें दान देने की परम्परा थी। मगर डोम तब दाह संस्कार की यूं मुंह मांगी कीमत नहीं मांगते थे और ना ही पैसा कमाने के गलत तरीके अपनाते थे।
दरअसल टैक्स वसूलने के मौजूदा दौर की शुरुआत हुई राजा हरीशचंद्र के
जमाने से। हरीशचंद्र ने तब एक वचन के तहत अपना राजपाट छोड़ कर डोम परिवार
के पूर्वज कल्लू डोम की नौकरी की थी। इसी बीच उनके बेटे की मौत हो गई और
बेटे के दाह संस्कार के लिये उन्हें मजबूरन कल्लू डोम की इजाजत मांगनी
पड़ी। चूंकि बिना दान दिये तब भी अंतिम संस्कार की इजाज़त नहीं थी लिहाजा
राजा हरीशचंद्र को मजबूरन अपनी पत्नी की साड़ी का एक टुकड़ा बतौर दक्षिणा
कल्लू डोम को देना पड़ा। बस तभी से शवदाह के बदले टैक्स मांगने की परम्परा
मजबूत हो गई। वही परम्परा जिसका बिगड़ा हुआ रूप मणिकर्णिका घाट पर आज भी
जारी है.
चूंकि ये पेशा अब पूरी तरह एक धंधे की शक्ल अख्तियार कर चुका है लिहाजा श्मशान के चप्पे चप्पे पर डोम परिवार ने बाकायदा जासूस फैला रखे हैं। उनकी नजर श्मशान में आने वाली हर शव यात्रा पर रहती है ताकि किस पार्टी से कितना पैसा वसूला जा सकता है इसका ठीक ठीक अंदाजा लगाया जा सके।
वैसे डोम परिवार की बात पर यकीन किया जाए तो गुजरे जमाने में उन पर धन-दौलत लुटाने वाले रईसों की कमी नहीं थी। उनका दावा है कि उस दौर में अंतिम संस्कार के एवज में उन्हें राजे रजवाड़े जमीन जायदाद यहां तक की सोना-चांदी तक दिया करते थे। जबकी आज के जमाने में मिलनेवाली तयशुदा रकम के लिये भी उन्हें श्मशान आने वालों से उलझना पड़ता है।
आज हम आपको इस श्मशान घाट से ही जुडी एक और अन्य परंपरा के बारे में बताएंगे जो भी यहाँ के अलावा कई और नहीं पाई जाती है।
मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार की कीमत चुकाने की परम्परा तकरीबन तीन हजार साल पुरानी है। मान्यता है कि श्मशान के रख रखाव का जिम्मा तभी से डोम जाति के हाथ था। चूंकि डोम जाति के पास तब रोजगार का कोई और साधन नहीं था लिहाजा दाह संस्कर के मौके पर उन्हें दान देने की परम्परा थी। मगर डोम तब दाह संस्कार की यूं मुंह मांगी कीमत नहीं मांगते थे और ना ही पैसा कमाने के गलत तरीके अपनाते थे।
चूंकि ये पेशा अब पूरी तरह एक धंधे की शक्ल अख्तियार कर चुका है लिहाजा श्मशान के चप्पे चप्पे पर डोम परिवार ने बाकायदा जासूस फैला रखे हैं। उनकी नजर श्मशान में आने वाली हर शव यात्रा पर रहती है ताकि किस पार्टी से कितना पैसा वसूला जा सकता है इसका ठीक ठीक अंदाजा लगाया जा सके।
वैसे डोम परिवार की बात पर यकीन किया जाए तो गुजरे जमाने में उन पर धन-दौलत लुटाने वाले रईसों की कमी नहीं थी। उनका दावा है कि उस दौर में अंतिम संस्कार के एवज में उन्हें राजे रजवाड़े जमीन जायदाद यहां तक की सोना-चांदी तक दिया करते थे। जबकी आज के जमाने में मिलनेवाली तयशुदा रकम के लिये भी उन्हें श्मशान आने वालों से उलझना पड़ता है।
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