Sunday 2 October 2016

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गांधीजी की मौत के रहस्य

By: Secret On: 14:58
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  •  गाँधी वध का रहस्य – कौन थे महात्मा गाँधी और गोडसे


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    गांधीजी की मौत के रहस्य का सच...

    गांधी एक महात्मा या दुरात्मा, इस प्रश्न के खड़े होते ही लोगों के मत विभिन्न धारणाओं तथा गलतफहमियों के कारण वास्तविक निष्कर्ष पर नहीं प्शुंच पाते l
    ये बात अपने आप में ही एक रहस्य लेकर सिमटी रह गयी या फिर तथ्य छुपा दिए गए, क्योंकि ये तो वो देश है जो जिसमे कुछ देशद्रोही मिल कर हराम खोर को भी हे-राम बना कर अपनी राजनीति करते हैं…
    राम को रावण और रावण को राम बना कर पढ़ाया-लिखाया गया, परन्तु उससे सत्य बदल तो नही जाता, गाँधी वध से संबंधित मूल कारणों से संबधित जितने भी तथ्य तथा सत्य हैं वे आज हम सबके सामने होते यदि उस समय सोशल मीडिया का अस्त्र समाज को उपलब्ध होता l
    हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे एक हिंदूवादी कार्यकर्ता होने के साथ साथ एक जाने माने पत्रकार भी थे, जो ‘अग्रणी’ नाम से अपना एक अखबार भी चलाते थे, आखिर एक पत्रकार को ओसो क्या आवश्यकता पड़ी कि उसने कलम छोड़ कर बंदूक उठाने का साहसिक निर्णय लिया, भारतीय पत्रकारों ने तो सदैव गोडसे के साथ पत्रकारिता के सन्दर्भ में भी सदैव भेदभाव ही किया गया l
    गांधी वध के असली तथ्य सदा छिपाए गए…..
    किसी को भी मारने के 2 मूल कारण होते हैं …
    1. किसी व्यक्ति ने अतीत में कुछ ऐसा किया हो जो आपको पसंद नहीं
    2. और कोई व्यक्ति भविष्य में कुछ ऐसा करने वाला हो जो आपको पसंद नहीं
    इन दोनों कारणों के इर्द गिर्द कारण अनेक हो सकते हैं ….
    ऐसा ही एक कारण गंधासुर वध के साथ तथा भारत के भविष्य का जुड़ा हुआ था
    गंधासुर वध 30 जनवरी को किया गया था…
    बहुत ही कम लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि गांधी वध का एक प्रयास 20 जनवरी 1948 को भी किया गया था l
    20 जनवरी, 1948 को गाँधी के ठिकाने बिरला हाउस पर बम फेंका गया था जिसमें वो बच गया था, यह बम पाकिस्तानी पंजाब से भारत आये एक 19 वर्ष के युवा शूरवीर मदनलाल पाहवा ने फेंका था, वह दुर्भाग्यशाली रहा और गाँधी सौभाग्यशाली l
    मदन लाल पाहवा का सबसे ज्वलंत प्रश्न आज भी सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर भारतीय सत्तालोलुपों की राजनितिक विफलता के कारण जो लोग विस्थापित हुए उन्हें शरणार्थी (Refugee) क्यों कहा जाता था ?
    विभाजन की त्रासदी में जो हिन्दू पाकिस्तान से भारत आये उन्हें दुरात्मा गांधी की बद्दुआओं का कोपभाजक बनना पड़ा, दुरात्मा गांधी पाकिस्तान से आये हुए हिन्दुओं को क्रोधवश कोसते हुए कहता था कि “तुम लोग यहाँ क्यों आये हो? जाओ वापिस चले जाओ, यदि मुसलमान तुम्हारी हत्या करके खुश होते हैं, तो उन्हें खुश करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दो l”
    ऐसे अनेकों लांछनों और आलोचनाओं से क्षुब्ध एक 19 वर्षीय युवा जो निस्संदेह अभी जीवन के उतार चढ़ावों की वास्तविकता से परिचित भी न हुआ था, उसके रक्त में उबाल भरने का कार्य गांधी तथा उसके सत्तालोलुप राजनेताओं ने किया l
    क्या गांधी तथा अन्य सत्तालोलुप नेताओं द्वारा ऐसी आलोचनाएं और टिप्पणियाँ वास्तविक दोषी नही थीं, मदन लाल पाहवा जैसे युवाओं को उकसाने हेतु ?
    मदनलाल पाहवा को गिरफ्तार कर लिया गया और अन्य साथियों की भी खोज की जाने लगी l
    और ठीक 10 दिन बाद 30 जनवरी, 1948 को दुरात्मा गाँधी का वध किया जाता है, यहाँ एक आवश्यक प्रश्न उभर कर आता है कि यह 10 दिन के अंदर ही क्यों हुआ ? थोडा और समय भी लिया जा सकता था l परन्तु 10 दिन ही क्यों ? ऐसा कौन सा संकटकाल आने वाला था कि 10 दिन के अंदर अंदर ही मारना पड़ा ?
    मैं समझता हूँ जब तक प्रश्नों का कारण से कोई अवगत न हो तब तक उसे गाँधी वध के बारे में कुछ भी कहने से स्वयं को रोकना चाहिए, और एक बार सभी तथ्यों तथा साक्षों से अवगत होकर अपना वंक्त्व्य देना चाहिए l
    अंग्रेज़ जब भारत को सत्ता का हस्तांतरण सौंप कर गये तब भारत के राजकोष में 155 करोड़ रूपये छोड़ कर गये थे, जिसमे दुरात्मा गांधी की यह मांग थी कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दे दिए जाएँ l
    यह 55 करोड़ और 75 करोड़ रूपये के तथ्य भी आजतक भारीयों की जानकारी से दूर रखे गये जबकि वास्तविकता यह है कि पकिस्तान को दी जाने वाली राशी जो निर्धारित हुई थी वह 55 करोड़ न होकर 75 करोड़ रूपये थी, जिसमे से 20 करोड़ का अग्रिम भुगतान पहले ही भारत सरकार द्वारा कर दिया गया था l
    परन्तु 20 करोड़ का अग्रिम भुगतान करने के तुरंत बाद ही पाकिस्तान ने कबाइली आतंकवादियों की सहायता से कश्मीर पर सैन्य हमला आरम्भ किया जिसके बाद भारत सरकार ने शेष 55 करोड़ का भुगतान रोक लिया, और यह कहा गया कि पाकिस्तान पहले कश्मीर विवाद को सुलझाए क्यूंकि यह विश्वास और संदेह सबको था कि पाकिस्तान 55 करोड़ रूपये का उपयोग सैन्य क्षमता बढाने हेतु ही करेगा l
    नेहरु और पटेल की असहमति के बाद क्रोधवश गांधी द्वारा हठपूर्वक आमरण अनशन करके नेहरु और सरदार पटेल पर जो राजनितिक दबाव की राजनीती खेल कर पाकिस्तान को हठपूर्वक 55 करोड़ दिलवाए गये, वह समूचे देश के नागरिकों के रक्त को उबाल गया था l
    गाँधी द्वारा हठपूर्वक अनशन करके 55 करोड़ की राशि प्राप्त होने के कुछ घंटों में ही पकिस्तान ने कश्मीर पर पुन: सैनिक आक्रमण आरम्भ कर दिए l
    अभी भारत सरकार कश्मीर की चुनौतियों से निपटने की रणनीति बना ही रही थी कि गांधी ने अचानक पकिस्तान जाने का निर्णय ले लिया, विश्वस्त कारण यह बताये जा रहे थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच हुए विभाजन के बाद पाकिस्तान की नाजायज़ मांगों को मनवाने हेतु भारत सरकार के ऊपर दबाव बनाने हेतु गाँधी 7 फरवरी, 1948 को अनशन पर बैठने वाला है l यह अनशन लाहौर में होना था जो कि उस समय पाकिस्तान की राजधानी थी, इस्लामाबाद को पाकिस्तान की राजधानी बाद में बनाया गया l
    यह नाजायज़ मांगें कौन सी थीं, इन पर आज तक भारत सरकार द्वारा पर्दा डाल कर रखा गया है साथ ही न्यायालय में हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे द्वारा गांधी वध हेतु गिनवाए गये 150 कारणों को भी तत्कालीन सरकार द्वारा सार्वजनिक किये जाने पर प्रतिबन्ध लगाया गया l
    आखिर क्या भय था… और क्या कारण थे, इन पर से पर्दा हारना अत्यंत आवश्यक है ?
    जिन्ना एक हिन्दू से मुस्लिम बने परिवार की पहली पीढ़ी का एक भाटिया राजपूत था काठियावाड़ क्षेत्र का, जिसके बाप का नाम था पुन्ना (पुंजा/पुन्ज्या) लाल ठक्कर जिन्ना ने गंधासुर को आमंत्रित किया था पाकिस्तान की यात्रा के लिए l
    मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने कुछ मांगें रखी थीं, जो कि सरासर अमर्यादित और नाजायज़ थीं, और उन मांगों के पीछे इस्लामिक राष्ट्र के पैशाचिक षड्यंत्र भी थे, जिनको कि आप सबके सामने रखना अत्यंत आवश्यक है l
    इन मांगों में जो सबसे विषैली मांग थी उसका आकलन आपको अत्यंत गंभीरता से करना होगा :
    जिन्ना और मुस्लिम लीग ने मांग रखी कि हमें इस पाकिस्तान से उस पाकिस्तान जाने में समुद्री रस्ते से बहुत लम्बा मार्ग तय करना पड़ता है और पाकिस्तानी जनता अभी हवाई यात्रा करने में सक्षम नही है, इसलिए हमें भारत के बीचो बीच एक नया मार्ग (Corridor) बना कर दिया जाए… उसकी भी शर्तें थीं जो बहुत भयानक थीं l
    1. जो कि लाहोर से ढाका तक जाता हो अर्थात राष्ट्रीय राजमार्ग -1 (NH – 1 : Delhi – Amritsar) और राष्ट्रीय राजमार्ग -2 (NH – 2 : Delhi – Calcutta) को मिलाकर एक कर दिया जाए तत्पश्चात इसे बढ़ाकर लाहोर से ढाका तक कर दिया जाये l
    2. जो दिल्ली के पास से जाता हो …
    3. जिसकी चौड़ाई कम से कम 10 मील की हो अर्थात 16 किलोमीटर (10 Miles = 16.0934 KM)
    4. इस 16 किलोमीटर चौड़ाई वाले गलियारे (Corridor) में बस, ट्रेन, सडक मार्ग आदि बनाने के बाद जो भी स्थान शेष बचेंगे उनमे केवल पाकिस्तानी मुसलमानों की ही बस्तियां बसाई जाएँगी l
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    भारतीय हिन्दुओं की तो छोडिये, उस गलियारे (Corridor) में मात्र पाकिस्तानी मुसलमान ही रहेगा भारत में रहने वाला कोई मुसलमान नही रहेगा और इस मांग का यदि गंभीरता से आकलन करें आप तो यह पाएंगे कि यह सीधा सीधा इस गलियारे के ऊपर के उत्तर भारत को पाकिस्तान के दोनों हिस्सों (पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान) से जोड़ने का षड्यंत्र था जिसको कि नाम दिया गया था मुगालिस्तान l
    अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों की यह सूची बहुत लम्बी है, जिसका सम्पूर्ण अध्ययन करने के पश्चात आपको यह सोचने पर विवश होना पड़ेगा कि आखिर गाँधी की निष्ठा भारत के प्रति थी या पाकिस्तान के प्रति… और उसके बाद आपको भी यह कहना पड़ेगा कि दुरात्मा गांधी राष्ट्रपिता नही अपितु पाक-पिता था (पाकिस्तान का पिता ) l
    इन समस्त जानकारियों को खोजने के लिए एक लंबा समय लगा,  परन्तु इस लम्बे समय में बहुत से तथ्य भी सामने आये जिनको देखने पर प्रथम दृष्टी में ही दुरात्मा गांधी एक कुत्सित मानसिकता का व्यक्ति लगता है कि क्यों उसने मांगों को मानने हेतु भारत सरकार पर दबाव बनाया ? क्या दुरात्मा गाँधी ने इन मांगों का विस्तृत अध्ययन भी किया था या नही ?
    इसमें सबसे आश्चर्यजनक तो नगालैंड के एक दुर्गम हिस्से में नियुक्त एक जिला आयुक्त के पास जमाखुदरा रोकड़ जो कि 75 रुपए थे, उसके भी आनुपातिक विभाजन का एक रिकॉर्ड प्राप्त होता है l
    प्रत्येक देश को विरासत में मिलीं रेलगाड़ियाँ तथा रेल ट्रैक और सड़क राजमार्गों के लाभ अनुपात भी विभाजित किये गये l
    टेंकों का बंटवारा…
    हवाई जहाज़ों का बंटवारा…
    युद्ध विमानों का बंटवारा…
    रेल की पटरियों का बंटवारा…
    कोयला, तेल, गैस के प्राकृतिक संसाधनो में रायल्टी l
    कराची और ढाका बन्दरगाहों में से एक बन्दरगाह भी भारत के भाग में आना तय किया गया था, परन्तु दुरात्मा गांधी के आदेश पर एम. सी. सीतलवाड नामक एक व्यक्ति जो कि भारत के पहला Attorny General भी नियुक्त किया गया, उसने जाकर कुछ ऐसी शर्तों पर सहमती बनाई कि भारत के हिस्से में न तो कराची का बन्दरगाह आया और न ही ढाका, क्योंकि दोनों में जो भी बन्दरगाह भारत के भाग में आता, उससे पाकिस्तान के नक्शे भारी परिवर्तन होता l
    कराची जो कि पाकिस्तान का व्यावसायिक केंद्र था, और मुंबई (Bombay) भारत का, दोनों की शहरों की चल तथा अचल सम्पत्तियों में जमीन आसमान का अंतर था उसे भी गांधी ने बराबर करने को कहा, उदाहरणार्थ यदि मुंबई का मूल्यांकन 1000 रूपये हो और कराची का 25 रूपये तो कराची को 500 रूपये के लगभग दिए जायें, जिससे कि दोनों शहरों को बराबर किया जा सके l
    जबकि इसके विपरीत लाहौर के एक शीर्ष पुलिस अधिकारी ने पुलिस विभाग का विभाजन आधा आधा बाँट दिया हिन्दू अधिकारी और मुस्लिम अधिकारी के बीच, जिसमे लाठियां, राइफलें, वर्दी, जूते आदि शामिल थे l
    लाहौर स्थित पंजाब सरकार के पुस्तकालय में जो Encyclopedia Britannica की एक प्रति थी उसेधार्मिक आधार पर विभाजित कर के दोनों देशों को आधा-आधा दे दिया गया l पुस्तकालय की पुस्तकें जो भारत भेजने पर सहमती बनाई गई, उन्हें भेजते समय अधिकाँश बहुमूल्य ग्रन्थ, पुस्तकें, अभिलेख आदि नष्ट कर दिए गये l
    सबसे हास्यापद तो यह तथ्य सामने आया कि अंग्रेजी शब्दकोश की एक डिक्शनरी को फाड़ कर दो भागों में विभाजित कर दिया गया, A-K शब्दकोश भारत भेजे गये और बाकी पाकिस्तान में रखे गये l
    मुस्लिम शराब व्यापारियों को भारत में रहने को कहा गया, क्योंकि इस्लाम में शराब हराम है, परन्तु पाकिस्तान की बेशर्मी देखिये कि इन शराब कि फेक्टरियों का मुआवजा भी माँगा और भविष्य में होने वाले लाभ में हिसा भी l
    भारत सरकार के पास एक सरकारी मुद्रा छपने की मशीन थी जिसे देने से भारत सरकार ने स्पष्ट मना कर दिया था l
    भारत के वायसराय के पास दो शाही गाड़ियां थीं जिसमे से एक सोने की थी और एक चांदी की थी, दोनों पर विवाद हुआ तो लार्ड माउन्टबेटन के सैन्यादेशवाहक (ADC means Aide-de-camp) ने सिक्का उछाल कर निर्णय किया तो सोने की गाड़ी भारत के हिस्से में आई l वायसराय की साज सज्जा के सामान, कवच, चाबुक, वर्दियां आदि सब बराबर बराबर बाँट ली गई l
    अंत में वायसराय के सामान में एक भोंपू (तुरही) शेष बची, जो कि विशेष आयोजनों में बजाने हेतु उपयोग में लाई जाती थी, अब यदि उसे आधा आधा बाँट दिया जाए तो किसी काम का नही और एक देश को देने पर विवाद होना तय था, तो अंत में उसे ADC ने ही अपने पास एक यादगार के रूप में रख लिया l
    जनसंख्या के आधार पर हुए इस विभाजन के आधार पर आकलन करें तो समस्त चल और अचलपरिसंपत्तियों में भारत की हिस्सेदारी 82.5% थी, और पाकिस्तान 17.5% की हिस्सेदारी थी, जिसमेतरल संपत्ति, मुद्रित मुद्रा भंडार, सिक्के, डाक और राजस्व टिकटें, सोने के भंडार और भारतीय रिजर्वबैंक की संपत्ति भी शामिल है।
    सभी चल और अचल संपत्ति में से भारत और पाकिस्तान के बीच का अनुपात 80-20 में निर्धारित होने की सहमती बनने का अनुमान था, पाकिस्तान ने बेशर्मी की समस्त हदें पार करते हुए मांगें रखीं जिसमे मेज, कुर्सियां, स्टेशनरी, बिजली के बल्ब, स्याही बर्तन, झाडू और सोख्ता कागज (InkPads) का भी विभाजन किया जाना था l
    उपरोक्त समस्त सन्दर्भों तथा तथ्यों का आकलन करने पर एक मूल प्रश्न खड़ा होता है कि यदि उपरोक्त वर्णित अनुपात के रूप में पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपए देने के लिए दुरात्मा गांधी दबाव बना रहा था तो उस अनुपात की दृष्टि से भारत के लिए कितना कोष बनता था… उत्तर मिलेगा 470 करोड़रुपए l
    जबकि अंग्रेज भारत के राजकोष में मात्र 155 करोड़ रूपये छोड़ कर गये थे, शेष धन गांधी ने अंग्रेजों से क्यों नही माँगा ?
    इन अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों के प्रति तत्कालीन भारत सरकार ने नाराजगी प्रस्तुत की और और सरदार पटेल ने मांगें मांगने से स्पष्ट मन कर दिया जिसके कारण दुरात्मा गाँधी ने पाकिस्तान जाकर हठपूर्वक आमरण अनशन करने की जिन्ना के सुझाव को स्वीकार किया जिससे कि यह विवाद अंतर्राष्ट्रीय विवाद का रूप ले तथा भारत सरकार पर दबाव बना कर अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को स्वीकार करवाया जा सके l
    यहाँ मैं यह कहने में मुझे कोई झिझक नही है कि श्री मदन लाल पाहवा, श्री नथुराम गोडसे, श्री नारायण आप्टे, श्री विष्णु करकरे, श्री गोपाल गोडसे आदि ने कोई अपराध नही किया अपितु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर उन अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को रुकवाया जिन्हें रुकवा पाने में स्वयं नेहरु और पटेल भी असमर्थ थे l
    गांधी वध के अंतिम दिनों के बार में भी यदि हम आकलन करेंगे तो पायेंगे कि 20 जनवरी, 1948 के बम फेंकने के प्रकरण के बाद बिरला हॉउस की सुरक्षा बढाने के स्थान पर घटा दी गई थी, जिससे यह पक्ष उजागर होता है कि नेहरु सरकार उस समय गांधी वध के खतरे को समझते हुए भी इस महान कार्य को होने देना चाहती थी l
    परन्तु आखिर 10 दिन ही क्यों …
    जबकि उस समय न इंटरनेट था, न मोबाइल, न ही पेजर, न ही फैक्स आदि की सुविधायें थीं अर्थात संचार माध्यम इतने विकसित नही थे, और 20 जनवरी के असफल प्रयास के बाद छिपने के स्थान पर 10 दिन के अंदर ही अंदर ट्रेनों में घूम कर स्वयं को छिपाना, सुरक्षित रखना और नई योजना बना कर संसाधन एकत्रित करके पुन: मात्र 10 दिन में ही क्यों गांधी वध की योजना को पूर्ण किया गया… जबकि आज भी यदि ऐसा कोई प्रयास असफल हो जाये तो स्वयं को छिपाने हेतु व्यक्ति कम से कम 6 महीने से एक वर्ष का समय ले लेता है… आखिर ऐसा क्या संकटकाल था ?
    संकटकाल यही था कि 3 फरवरी, 1948 को गांधी लाहौर जा रहा था, और 7 फरवरी 1948 को वह लाहौर में हठपूर्वक आमरण अनशन भारत सरकार पर दबाव बना कर अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को स्वीकार करवाने के राष्ट्रद्रोही दुष्कृत्य को रोका जा सके l
    अन्यथा चल-अचल सम्पत्ति तो जो जाती सो जाती साथ ही सम्पूर्ण उत्तर भारत के मुग्लिस्तान बनाये जाने हेतु इस्लामीकरण का खतरा भी बढ़ जाता l
    शुक्रवार, 30 जनवरी 1948, की शाम को बिरला हॉउस में जब गांधी शाम की प्रार्थना सभा हेतु जा रहा था, तो सबकी योजना यह थी कि जब गाँधी प्रार्थना सभा से लौटेगा तो उस समय उसे गोली मारी जाएगी, परन्तु इसके विपरीत हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे ने आदमी शौर्य का साहस देते हुए एक साहसिक निर्णय लिया कि बाद में न जाने अवसर प्राप्त हो या न हो, अभी अवसर है तो योजना को अभी पूर्ण कर दिया जाए, और यही सोचकर उन्होंने तुरंत आगे चल रहे गांधी को तेज़ कदमों से पार किया और आगे बढ़कर गांधी के सीने में अपनी बरेटा रिवोल्वर से गोलियां ठोंक कर एक … नर-पिशाच दुरात्मा मोहनदास करमचन्द ग़ाज़ी का वध किया l
    इसे हत्या का नाम देना मर्यादा के विपरीत होगा, इसे वध ही कहा जायेगा, The Righteous Killing,
    गांधी वध के पश्चात हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे, नारायण आप्टे तथा विष्णु करकरे वहां से भागे नही, और न ही पुलिस जांच तथा न्यायालय में कभी भी किसी ने गाँधी वध के आरोप को अस्वीकार किया जो कि एक आदमी शौर्य की वीरगाथा की अनुभूति करवाते हैं l
    आज भारत के नागरिक या सम्पूर्ण विश्व के नागरिक जो हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे तथा नारायण आप्टे को हत्यारा कह कर सम्बोधित करते हैं उन्हिएँ आवश्यकता है समस्त तथ्यों तथा सन्दर्भों से परिचित होकर इनका आकलन करने की l
    कम से कम उत्तर भारत के समस्त राज्यों के निवासियों को तो यह समझना चहिये कि हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे, नारायण आप्टे, मदनलाल पाहवा, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे आदि द्वारा किये गये इस पवित्र कार्य से वे सब मुस्लिम होने से बच गये, अन्यथा जिस प्रकार पकिस्तान में फंसे बड़े बड़े धनवान, बलवान हिन्दू भी मुसलमान हो गये आज उसी भाँती उत्तर भारत के राज्यों के निवासियों का भी इस्लामीकरण तलवार की नोक पर कर दिया जाना था l
    अयोध्या, काशी, मथुरा, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि की परिस्थिति आज कुछ और ही होतीं l
    गाँधी वध से संबंधित इन मूल कारणों की अज्ञानता ही प्रमुख कारण है कि आज भी हुतात्मा पंडित नाथूराम गोडसे का चरित्र चित्रण एक हत्यारे की भांति किया जाता है l
    न्याय व्यवस्था और संविधान का गठन इस हेतु किया जाता है कि नागरिकों को कठोर कानूनों से भी उत्पन्न हो और जो उसके बावजूद भी छोटे अपराध, बड़े अपराध करे उसे उसके अनुसार दंड मिले, छोटा दंड छोड़ी सज़ा, बड़ा दंड बड़ी सज़ा l
    प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था तथा ऋषियों द्वारा निर्मित दंड संहिताओं का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि न्याय की मूल भावना होनी चाहिए कि…
    1. नागरिकों को अपराध प्रवृत्ति से दूर रखा जाये l
    2. अपराधी को दंड देने के बाद पुन: समाज में आम नागरिक का सम्मान प्राप्त हो l
    परन्तु गाँधी वध हेतु दोषी पाए जाने पर भारतीय न्याय व्यवस्था द्वारा जो मृत्यु दंड हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे को दिया गया उसके बाद भारतीय जनता को इस प्रकार पढ़ाया लिखाया गया कि आज तक हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे को अपराध मुक्त नही किया जा सका और उन्हें एक हत्यारे के रूप में ही लिखाया पढ़ाया गया l यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है l
    गान्धी-वध के न्यायिक अभियोग के समय न्यायमूर्ति जी.डी.खोसला से नाथूराम गोडसे ने अपना वक्तव्य स्वयं पढ़ कर सुनाने की अनुमति माँगी थी और उसे यह अनुमति मिली थी। नाथूराम गोडसे का यह न्यायालयीन वक्तव्य भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया था।
    इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध नाथूराम गोडसे के भाई तथा गान्धी-वध के सह-अभियुक्त गोपाल गोडसे ने कई वर्षों तक न्यायिक लडाई लड़ी और उसके फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबन्ध को हटा लिया तथा उस वक्तव्य के प्रकाशन की अनुमति दी। नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के समक्ष गान्धी-वध के जो 150 कारण बताये थे उनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं: –
    1. अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाये। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से स्पष्ठ मना कर दिया।
    2. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था, कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचायें, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया।
    3. 6 मई, 1946 को समाजवादी कार्यकर्ताओं को दिये गये अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।
    4. मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दू मारे गये व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।
    5. 1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये अहितकारी घोषित किया।
    6. गान्धी ने अनेक अवसरों पर शिवाजी एवं महाराणा प्रताप को पथभ्रष्ट कहा।
    7. गान्धी ने जहाँ एक ओर कश्मीर के हिन्दू राजा हरि सिंह को कश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दू बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।
    8. यह गान्धी ही थे जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।
    9. कांग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिये बनी समिति (1931) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गान्धी की जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।
    10. कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से काँग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टाभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पद त्याग दिया।
    11. लाहौर कांग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।
    12. 14-15 जून, 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।
    13. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे; ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।
    14. पाकिस्तान से आये विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।
    15. 22 अक्टूबर, 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउण्टबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपये की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।
    नाथूराम गोडसे को सह-अभियुक्त नारायण आप्टे के साथ 15 नवम्बर, 1949 को पंजाब की अम्बाला जेल में फाँसी पर लटका कर मार दिया गया। उन्होंने अपने अन्तिम शब्दों में कहा था:
    “यदि अपने देश के प्रति भक्तिभाव रखना कोई पाप है तो मैंने वह पाप किया है और यदि यह पुण्य है तो उसके द्वारा अर्जित पुण्य पद पर मैं अपना नम्र अधिकार व्यक्त करता हूँ l मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर यदि कोई न्यायालय है, तो उसमेँ मेरे कार्य को अपराधनहीँ समझा जाएगा, मैंने देश और जाति की भलाई हेतु यह पुण्य  किया। ”
    – नाथूराम विनायक गोडसे
    हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे जी की अंतिम इच्छा आप सबके समक्ष रख रहा हूँ :
    “मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जब सिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी के रूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”
    प्रतीक्षारत हैं एक राष्ट्रभक्त की अस्थियाँ… मुक्ति हेतु …
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    जय जय श्री राम कृष्ण परशुराम

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