Monday 28 November 2016

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दिल्ली के लौह स्तम्भ का रहस्य

By: Secret On: 18:00
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  • दिल्ली के लौह स्तम्भ का रहस्य


    विश्वप्रसिद्ध दिल्ली का ‘लौह स्तम्भ’-
    हमारा भारत कितना अद्भुत है!
    कितना ज्ञान बिखरा हुआ है यहाँ प्राचीन धरोहरों के
    रूप में ,जिसे हमें समय रहते संभालना है.
    दुनिया की प्राचीनतम और
    जीवंत सभ्यताओं में से एक है हमारे देश
    की सभ्यता.
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    हमारी प्राचीन धरोहरें बताती
    हैं कि हमारा देश अर्थव्यवस्था,स्वास्थ्य
    प्रणाली,शिक्षा प्रणाली, कृषि
    तकनीकी,खगोल शास्त्र ,विज्ञान , औषधि
    और शल्य चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में बेहद
    उन्नत था.
    मैगस्थनीज से लेकर फाह्यान, ह्वेनसांग तक
    सभी विदेशियों ने भारत की भौतिक समृध्दि
    का बखान किया है.
    प्राचीन काल में उन्नत तकनीक और विराट
    ज्ञान संपदा का एक उदाहरण है अभी तक
    ‘जंगविहिन’ दिल्ली का लौह स्तंभ’.इसका सालों से
    ‘जंग विहीन होना ‘ दुनिया के अब तक के अनसुलझे
    रहस्यों मे माना जाता है.
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    सन २००२ में कानपुर के वैज्ञानिक बालासुब्रमानियम ने अपने
    अनुसन्धान में कुछ निष्कर्ष निकाले थे.जैसे कि इस पर
    जमी Misawit की परत इसे जंग लगने
    से बचाती है .वे इस पर लगातार शोध कर रहे हैं.
    माना जाता है कि भारतवासी ईसा से ६०० साल पूर्व से
    ही लोहे को गलाने की
    तकनीक जानते थे.पश्चिमी देश इस ज्ञान
    में १००० से भी अधिक वर्ष पीछे रहे.
    इंग्लैण्ड में लोहे की ढलाई का पहला कारखाना सन्
    ११६१ में खुला था.
    बारहवीं शताब्दी के अरबी
    विद्वान इदरिसी ने भी लिखा है कि
    भारतीय सदा ही लोहे के निर्माण में
    सर्वोत्कृष्ट रहे और उनके द्वारा स्थापित मानकों की
    बराबरी कर पाना असंभव सा है.विश्वप्रसिद्ध
    दिल्ली का ‘लौह स्तम्भ’-
    स्थान- दिल्ली के महरोली में
    कुतुबमीनार परिसर में स्थित है.यह ३५
    फीट ऊँचा और ६ हज़ार किलोग्राम है.
    किसने और कब बनवाया-
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    गुप्तकाल (तीसरी शताब्दी से
    छठी शताब्दी के मध्य) को भारत का
    स्वर्णयुग माना जाता है .
    लौह स्तम्भ में लिखे लेख के अनुसार इसे किसी राजा
    चन्द्र ने बनवाया था.बनवाने के समय विक्रम सम्वत् का आरम्भ
    काल था। इस का यह अर्थ निकला कि उस समय समुद्रगुप्त
    की मृत्यु के उपरान्त चन्द्रगुप्त (विक्रम) का
    राज्यकाल था.तो बनवाने वाले चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
    द्वितीय ही थे और इस का निर्माण 325
    ईसा पूर्व का है.

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